जय जिनेन्द्र,
अब हमे पता है कि,
- क्रोध कषाय का अभाव होना - क्षमा धर्म ...
- मान कषाय का अभाव होना - मार्दव धर्म ...
- मान कषाय का अभाव होना - मार्दव धर्म ...
अब आगे धर्म के दसलक्षणों के क्रम में तीसरा है "आर्जव धर्म" और चार कषायों के क्रम में तीसरी है "माया कषाय"
माने,
- माया कषाय (मायाचारी) के अभाव को आर्जव धर्म कहते हैं !
माने,
- माया कषाय (मायाचारी) के अभाव को आर्जव धर्म कहते हैं !
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३- उत्तम आर्जव धर्म :-
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३- उत्तम आर्जव धर्म :-
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- आर्जव के शाब्दिक अर्थ हैं :- साधापन । सरलता । सुगमता । व्यवहार आदि की सरलता या साधुता । स्ट्रेट-फार्वर्डनेस इत्यादि !
- मन-वचन और काय की कुटिलता को त्याग कर परिणाम सरल रखना,
अर्थात कभी छल-कपट नहीं करना, जैसा मन में है वैसा ही वचनों से कहना और
जैसा कहा है वैसा ही काया से करना, सो उत्तम आर्जव धर्म है !
याने,
सोच-कथनी और करनी (मन-वचन-काय) में अंतर न होना आर्जव धर्म है !
सोच-कथनी और करनी (मन-वचन-काय) में अंतर न होना आर्जव धर्म है !
- दूसरों की चुगली करना, दोष उजागर करना, धोखा देना, झूठ बोलना, ठगी करना मायाचारी है !
- अगर सोचें की कौनसा जीव मायाचारी करता है, तो उत्तर मिलता
है कि :- जो धन, सम्पदा, कुटुंब आदि को अपनाता है वही छल-कपट-ठगाई का मार्ग
चुनता है, क्यूंकि जिसने जिन धर्म को अपना लिया, भेद-विज्ञान कर लिया,
जिसे अब संसारी पदार्थों में रूचि नहीं रही उसे मायाचारी करने की क्या
आवश्यकता है उसके तो स्वत ही आर्जव धर्म प्रकट हो जाता है !
- हम अक़सर मायाचारी करके सोचते हैं कि हमने अपना भला कर लिया,
कोई बड़ा लाभ कर लिया अपितु सत्य तो यह है कि मायाचारी करके हम अपनी आत्मा
का भयंकर नुक्सान ही करते हैं, और कुछ भी नही !
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मायाचारी का प्रमुख कारण :-
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मायाचारी का प्रमुख कारण :-
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# "धन-संपत्ति" एक प्रमुख कारण है जिसकी चाह में आकर यह जीव मायाचारी तक करने को विवश हो उठता है !
किन्तु विचार करने वाली बात यह है कि अरे जब महान चक्रवर्ती,
बड़े-बड़े राजा-महाराजा, यहाँ तक की हमारे स्वयं के दादा-परदादा अपने साथ कुछ
नहीं ले जा सके, तो क्यों फिर मैं इतनी मायाचारी, छल-कपट और बेईमानी करके
धन को अर्जित करूँ ?
व्यवहार में धन-संपत्ति आजीविका चलाने के लिए आवश्यक है, सो
उसका अर्जन करना भी ज़रूरी है, किन्तु वह भी सिर्फ न्यायिक तरीके से ही
मायाचारी से नहीं !
याद रखिये- मायाचारी से कमाए हुए करोड़ों-अरबों रुपयों का दान भी निष्फल ही होता है !
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मायाचारी का निश्चित फल :-
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मायाचारी का निश्चित फल :-
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- परम पूजनीय पूर्वाचार्य श्री उमास्वामी जी महाराज ने "तत्वार्थ-सूत्र जी" के छठे अध्याय के सोलहवें सूत्र में लिखा है :-
# "माया तैर्यग्योनस्य"
याने,
मायाचारी करने से तिर्यंच गति का बंध होता है !
मायाचारी करने से तिर्यंच गति का बंध होता है !
- भगवान कहते हैं कि हमारी धन-संपत्ति तो हमारा ज्ञान और
दर्शन है, मैं अब उसी को पाने के लिए रत होऊं तो ही आज का उत्तम आर्जव धर्म
का दिन सार्थक हो सकेगा !
आज के लिए इतना ही ...
to be continued ...
to be continued ...
--- उत्तम आर्जव धर्म की जय ---
Jain Dharam Saar
http://www.jainworld.com/lectures/das.asp
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