Sunday, September 7, 2014

दसलक्षण धर्म --> (उत्तम आकिंचन्य धर्म)

जय जिनेन्द्र,
दसलक्षण रूप धर्म का नवाँ लक्षण है, उत्तम आकिंचन्य !
आकिंचन्य धर्म को समझने से पहले परिग्रह को समझकर चलते हैं !
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परिग्रह :- 
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- पदार्थों के प्रति ममत्व का भाव रखना परिग्रह है !
- संसारी चीज़ों (ज़मीन,मकान,पैसा,पशु,गाड़ियां, कपड़े इत्यादि) को आवश्यकता से अधिक रखना और इन्हे और ज्यादा बढ़ाने/पाने की इच्छा रखना परिग्रह है !
#अंतरंग और बहिरंग के भेदों से परिग्रह 24 प्रकार का है :-

(क) अंतरंग परिग्रह :- रागादि रूप अंतरंग परिग्रह 14 प्रकार का होता है !
1- मिथ्यात्व, 
4- कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) और,
9- नो-कषाय (हास्य, रति, आरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद)

(ख) बहिरंग परिग्रह :- सांसारिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति रखना ... यह 10 प्रकार का होता है !
1:- क्षेत्र (खेत, भूमि), 
2:- वास्तु (मकान), 
3: -हिरण्य (चांदी,रुपया), 
4:- स्वर्ण (सोना), 
5:- पशुधन (गाय,भैंस आदि), 
6:- धान्य (अन्नादि), 
7:- दासी (नौकरानी), 
8:- दास (नौकर), 
9:- कुप्य (कपडे) और 
1०:- भांड (बर्तन) 
*** समस्त पापों का मूल कारण परिग्रह है !!!
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9- उत्तम आकिंचन्य धर्म
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"न किंचनयस्य स: अकिंचन"
माने,
- जिसके कुछ भी नहीं है, वह आकिंचन्य है !
- परिग्रह को महादुःख तथा बंध का कारण जानकर छोड़ना ही उत्तम आकिंचन्य धर्म है !
- अंतरंग और बहिरंग के भेद से 24 प्रकार के परिग्रहों और शरीर से ममत्व को त्यागना ही उत्तम आकिंचन्य धर्म है !
- जिस प्रकार सुनार अपने निरंतर अभ्यास, दर्शन और ज्ञान के बल पर एक मणियों के हार के लगे हीरों को और बाकी मणियों को अलग-अलग जान लेता है, उसी प्रकार "परमागम के" निरंतर अभ्यास से मेरे ज्ञान स्वभाव में मिले हुए राग-द्वेष-मोह-कामादि मैल को भिन्न और अपने ज्ञायक स्वरुप को भिन्न जानना है !
यदि, महापुण्य के उदय से मिले इस मनुष्य जन्म को भी संसार के पदार्थों-विषय-भोगों को पाने और अपनाने में बिता दिया, तो फिर आगे तो दुःख ही दुःख है, घोर दुःख है !
- कर्मों के उदय से प्राप्त हुए विनाशीक शरीर, परिवार, मित्र, धन, सम्पदा, वाहन, भूमि, इत्यादि परिग्रह में मुझे ममताबुद्धि कभी न उत्त्पन्न हो !
- यह आकिंचन्य भाव मुझे अनादिकाल से नहीं हुए हैं, मैं सभी पर्यायों को अपना रूप मानता रहा, सभी विकारों को अपना स्वभाव मानता रहा, अब मैं तीन लोक में किसी अन्य वस्तु को नहीं मांगता, अब यह अकिंचन्यपना ही संसार-समुद्र से तारने का जहाज हो जाए, इस प्रकार से आकिंचन्य भावना भाता हूँ ! !
आज के लिए इतना ही ...
to be continued ...
--- उत्तम आकिंचन्य धर्म की जय ---

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